कहा जाता है कि सृष्टि उत्पति के समय भगवान ब्रह्मा मां सरस्वति के स्वरूप पर मोहित हो गए थे। भोलेनाथ ने क्रोधित होकर उनका एक सिर अपने त्रिशूल से काट दिया था। ब्रह्म हत्या के कारण उनका सिर त्रिशूल पर ही चिपका रह गया। इस पाप से मुक्ति हेतु भोलेनाथ पृथ्वी लोक गए। बद्रीनाथ से 500 मीटर की दूरी पर उनके त्रिशूल से ब्रह्मा का सिर धरती पर गिर गया। तभी से यह स्थान ब्रह्मकपाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवान शिव ने इस स्थान को वरदान दिया कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर श्राद्ध करेगा, उसे प्रेत योनि से मुक्ति मिलेगी। उनकी कई पीढ़ियों के पितरों को भी मुक्ति मिल जाएगी।
महाभारत में कई लोगों की मृत्यु हुई थी। उनका अच्छे से अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ था। उनकी अतृप्त आत्माअों को संतुष्ट करना जरुरी था इसलिए श्रीकृष्ण ने पांडवों को ब्रह्मकपाल में पितरों का श्राद करने को कहा। पांडवों ने श्रीकृष्ण की बात मानकर ब्रह्मकपाल में आकर श्राद्ध किया। जिससे अकाल मृत्यु के कारण प्रेत योनि में गए पितरों को मुक्ति मिल गई।
पुराणों में वर्णन है कि उत्तराखंड की धरती पर भगवान बद्रीनाथ के चरणों में ब्रह्मकपाल बसा है। यहां पर अलकनंदा नदी बहती है। कहा जाता है कि जिस व्यक्ति की अकाल मृत्यु होती है, उसकी आत्मा भटकती रहती है। ब्रह्मकपाल में उनका श्राद करने से आत्मा को शीघ्र शांति अौर प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है।
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